लेखक डॉ अभय कुमार स्वतंत्र पवकार और शिक्षक एवं जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से पीएचडी है।
Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!हाल के दिनों में, भाजपा शासित राज्यों की सरकारों ने खाद्य पदार्थों में तथाकथित ‘चूक और गंदगी की मिलावट को रोकने के उद्देश्य से विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किए है। इन नए आदेशों के तहत होटलो और ढाबों के मालिकों और कर्मचारियों का पुलिस सत्यापन अनिवार्य कर दिया गया है, और रसोई में सी.सी.टी.वी. कैमरे लगाने का निर्देश भी दिया गया है। उत्तराखंड की पुष्कर सिंह धामी सरकार ने भोजन में थूकने से संबधित अपराधों के लिए एक लाख रुपये तक के जुर्माने की घोषणा की है। इस तरह के दिशानिर्देश और इसके साथ चलने वाला सांप्रदायिक दुष्प्रचार न केवल भारतीय संविधान का उल्लंघन करते है, बल्कि सामाजिक रूप से विभाजनकारी और भेदभावपूर्ण भी है। इसके बावजूद राजनीतिक विपक्ष के एक बड़े हिस्से ने इनकी निदा नहीं की है।
धामी सरकार का यह फैसला उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार द्वारा इसी तरह के सख्त दिशा-निर्देश लागू करने के कुछ समय बाद आया है। इस बात की भी आशंका है कि इन आदेशों के माध्यम से नागरिकों और मजदूरों पर निगरानी रखने का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है, जिससे उनकी निजता पर गभीर असर पड़ सकता है। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश से मिली खबरों के अनुसार, योगी सरकार ने सख्त आदेश दिए है कि अगर किसी भोजनालय के कर्मचारी ने अपनी पहचान छुपाई या वहाँ कोई घुसपैठिया या अवैध विदेशी नागरिक पाया गया, तो दोषियों पर कठोर दंड लगाया जाएगा।
13 अक्टूबर, 2024 को उधम सिंह नगर जिले के किच्छा में आयोजित एक समारोह में उत्तराखंड मुख्यमंत्री धामी ने कहा, देवभूमि उत्तराखंड में धर्मातरण, अतिक्रमण, भूमि जिहाद और थूक जिहाद की अनुमति नहीं दी जाएगी। दो दिन बाद, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने घोषणा की कि खाद्य पदार्थों में मिलावट को रोकने के लिए सख्त कदम उठाए जाएंगे। उन्होंने कहा, ‘खाद्य एवं पेय पदार्थों में अखाद्य और गंदी चीजों की मिलावट असभ्य और अमानवीय आचरण है। ऐसे वीभत्स, स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालने और सामाजिक सौहार्द को बिगाड़ने वाले कुत्सित कृत्यो को कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता है। खाद्य पदार्थों की पवित्रता सुनिश्चित करने और सार्वजनिक व्यवस्था के बारे में उपभोक्ताओं में विश्वास बनाए रखने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार अति शीघ्र कठोर कानून लाने जा रही है। प्रदेश के हर नागरिक की आस्था और स्वास्थ्य का संरक्षण आपकी सरकार की शीर्ष प्राथमिकता है।” उनके बयानों को आर एस एस के अंग्रेजी साप्ताहिक और मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर 16 अक्टूबर, 2024 में प्रकाशित किया गया।
मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, योगी आदित्यनाथ ने इन प्रस्तावित कानूनों पर चर्चा करने के लिए 15 अक्टूबर को अधिकारियों के साथ एक उच्च स्तरीय बैठक की। इन दिशा-निर्देशों के समर्थकों का दावा है कि इनका उद्देश्य किसी भी तरह के खाद्य प्रदूषण को रोकना और उपभोक्ता सुरक्षा सुनिश्चित करना है, लेकिन आम जनता में यह डर भी है कि इन कानूनों का दुरुपयोग हाशिए पर पड़े समुदायों, विशेष रूप से मुसलमानों और दलितों, के खिलाफ किया जा सकता है।
ये आशंकाएं निराधार नहीं है, क्योंकि अगर भाजपा सरकार की मशा सही होती, तो इस पूरी घटना का सांप्रदायीकरण नहीं किया जाता, और न ही इस मुहिम को ‘थूक जिहाद के खिलाफ बताया जाता। चूक जिहाद शब्द से ही इन अभियानों के पीछे छिपे मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह का पता चलता है। भला धूकने की क्रिया और जिहाद की अवधारणा के बीच कोई तार्किक सबंध हो सकता है? दक्षिणपथी ताकतो द्वारा जानबूझकर जिहाद’ शब्द का चयन एक भयावह एजेंडे का संकेत देता है, क्योंकि यह सांप्रदायिक विभाजन को बढ़ावा देता है।
इस्लामी विद्वान जिहाद शब्द और इसके इर्द-गिर्द होने वाली बहसो को विस्तार से समझाते है, लेकिन व्यापक सहमति यह है कि यह शब्द किसी नेक उद्देश्य के लिए प्रयास करने से जुड़ा हुआ है। इसका हिंसा से कोई लेना-देना नहीं है. और न हि यह गैर मुसलमानों के खिलाफ है। जिहाद हिंदुओं की सुरक्षा के लिए खतरा नहीं है। ऐतिहासिक रूप से ऐसी कोई घटना दर्ज नहीं है जिसमे मुसलमानों ने हिंदुओं के खिलाफ जिहाद की घोषणा की हो। सरल शब्दों में, जिहाद का अर्थ है वैध और उचित उद्देश्य के लिए प्रयास करना। यह अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष है।
जिहाद के दो आयाम होते है एक बाहरी जिहाद, जो किसी उचित और नेक उद्देश्य के लिए किया जा सकता है, और एक आंतरिक जिहाद अर्थात् स्वयं के खिलाफ एक व्यक्तिगत संघर्ष। व्यापक रूप से यह स्वीकार किया जाता है कि आंतरिक जिहाद, जिसका उद्देश्य किसी के चरित्र और आचरण को शुद्ध करना है, ‘बड़ा जिहाद है। खुद को सुधारना, एक अच्छा इंसान बनने का प्रयास करना और दिल की बुराई को दूर कर एक नेक और सच्चा इंसान बनना बाहरी जिहाद की तुलना में कहीं अधिक कठिन और महत्वपूर्ण कार्य माना जाता है।
हालाँकि, भारत के सांप्रदायिक परिदृश्य में जिहाद के बारे में कई अफवाहें फैलाई गई हैं। इस शब्द का दुरुपयोग मुसलमानों और इस्लाम के खिलाफ भय उत्पन्न करने के लिए किया जाता है। हालाँकि, तालिबान और कुछ इस्लामवादी कृत्यों ने भी मुस्लिम विरोधी प्रोपेगेंडा को हवा दी है। याद रहे कि मार्च 2001 में तालिबान नेता मुल्ला मोहम्मद उमर के 26 फरवरी के आदेश के बाद बामियान बुद्ध की मूर्तियों ध्वस्त कर दी गई थीं। विरोधाभास यह है कि कट्टरपंथियों ने इस तरह की कट्टरता को इस्लाम के नाम पर उचित ठहराया। पोलिटिकल इस्लाम और इस्लामी कट्टरपंथियों ने भी इस्लामोफोबिया को बढ़ाने में कुछ हद तक भूमिका निभाई है।
आज इस्लामोफोबिया एक वैश्विक समस्या बन गया है। मुस्लिम विरोधी लेखकों ने मुस्लिम दुनिया और इस्लाम के बारे में इतना अधिक प्रोपेगेंडा फैलाया है कि कई लोगों को यह लगने लगा है कि मुस्लिम दुनिया गैर-मुस्लिम दुनिया के लिए खतरा है। निरंतर दुष्प्रचार ने बहुत से लोगों के मन में यह मिथक स्थापित कर दिया है कि मुसलमान ‘आतंकवादी’ होते हैं और ‘काफिरों के खिलाफ हिसक जिहाद छेडने की साजिश में लगे हैं।
कई तरह की गलतफहमियों फैलाई गई है कि मुसलमान बहुविवाह के जरिए अपनी आबादी बढ़ा रहे हैं, गैर-मुसलमानों का बलपूर्वक या धोखे से धर्मांतरण कर रहे है, और लोकतांत्रिक एवं धर्मनिरपेक्ष सस्थाओं को खत्म कर सदियों पुरानी इस्लामी शासन व्यवस्था यानी ‘खिलाफत को पुन स्थापित करने के लिए ‘नापाक योजनाएँ बना रहे हैं। झूट जब बार-बार दोहराया जाता है, तो उसे सच मान लिया जाता है। यही कारण है कि कुछ ‘लिबरल’ लोग भी मुसलमानों के प्रति पूर्वाग्रह विकसित कर लेते हैं।
हालोंकि, सच्चाई इससे बहुत अलग है। मुसलमानों के लिए पैगंबर मुहम्मद साहब आदर्श हैं। उनका जीवन अमन और भाईचारे का संदेश देता है, और गैर-मुसलमानों के साथ दोस्ती और सहयोग के उदाहरणों से भरा पड़ा है। उन्होंने अक्सर गैर-मुसलमानो के साथ संधियों की। पवित्र कुरान इस बात पर जोर देता है कि उनका संदेश केवल मुसलमानों के लिए नहीं, बल्कि पूरी मानवता के लिए है। कुरान बार-बार मानवता की सेवा के महत्व को रेखांकित करता है। कुरान में ईश्वर की पूजा और मानव की सेवा का एक साथ उल्लेख किया गया है। इतिहास गवाह है कि मुस्लिम शासन के दौर में गैर-मुसलमानों ने अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जीवन व्यतीत किया। यहाँ तक कि यहूदी समुदाय जिन्हें अकसर अन्य स्थानों पर सताया जाता था, लेकिन मुस्लिम शासन के दौरान सुकून से रहा।
हालाँकि इस बात से इकार नहीं किया जा सकता कि मध्य पूर्व और कई अन्य देशो में फैले पॉलिटिकल इस्लाम ने इस्लाम की सही छवि पेश नहीं की है, लेकिन यह भी सथ है कि धर्म का गलत इस्तेमाल करने वाले अन्य धर्मों में भी मौजूद हैं। यह एक कड़वी सच्चाई है कि कुछ मुसलमान अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए धार्मिक प्रतीकों का दुरुपयोग करते है। साथ ही, इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि उच्च जाति के मुस्लिम पुरुष कई अवसरों पर अपने ही समुदाय के दलित, पसमांदा मुसलमानों और महिलाओं के अधिकारों का हनन करते है। ऐसे मुसलमान भी हो सकते है जो इस्लाम का दुरुपयोग करके हिंसक कृत्य करते हैं, लेकिन यह सच है कि अन्य धर्मों के अनुयायी भी अपने धर्म का दुरुपयोग करते हैं।
फिर दोहराना बाहूँगा कि धर्म का राजनीतिकरण केवल मुसलमानों द्वारा नहीं किया गया है, दूसरे धर्मों के लोगों ने भी ऐसा किया है। उदाहरण के लिए, महात्मा गांधी द्वारा अपनाए गए हिंदू धर्म और उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे द्वारा प्रचारित हिंदू धर्म में बहुत अंतर था। यह दर्शाता है कि किसी भी धर्म का दुरुपयोग संभव है। इसलिए मुसलमानों को ‘दकियानूसी,” “मजहबी कट्टर, और जिहादी कहना सकीर्ण और पूर्वाग्रहपूर्ण मानसिकता को दर्शाता है।
लेकिन इन बारीकियों से हिंदुत्व समर्थक तबकों को कोई खास मतलब नहीं है। उनका उद्देश्य तो केवल धर्म के नाम पर लोगों को बाँटना और राजनीतिक लाभ प्राप्त करना है। आरएसएस और बीजेपी के राजनीतिक प्रभुत्व में आने के साथ ही मुस्लिम विरोधी विमर्श और तेज हो गया है। हालाँकि इससे पहले भी सांप्रदायिक सोच मौजूद थी, हिंदू पुनरुत्थान के नाम पर मुसलमानों के खिलाफ साहित्य लिखा और फैलाया जाता रहा था। आरएसएस और बीजेपी ने इस विभाजन को और गहरा किया और इसका राजनीतिक इस्तेमाल किया। सत्ता में आने के बाद से ही हिंदुत्ववादी संगठनों ने न केवल वैश्विक मुस्लिम विरोधी प्रचार को अपनाया, बल्कि उसमें कुछ नातियाँ जोडकर इसे और भी खतरनाक बना दिया है। मुसलमानों के खिलाफ जो दुष्प्रचार वर्ष 1990 के दशक में शीत युद्ध के बाद तेज हुआ, उसका भारत में दक्षिणपंथी ताकतों ने कुशलतापूर्वक फायदा उठाया। इस मुस्लिम विरोधी विमर्श को चुनौती देने के बजाय, उन्होंने अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए इसे अपनाया। हिंदुत्व के विचारको ने पश्चिमी देशों में बैठे मुस्लिम विरोधी लेखकों की नकल की और भारत के संदर्भ में इसे और भी बढावा दिया।
भारतीय मीडिया में उच्च जातियों की लॉबी के प्रभुत्व ने हिंदुत्व के प्रचार को और आसान बना दिया है। सवर्ण पत्रकारों ने आरएसएस और बीजेपी के नैरेटिव को बिना सवाल किए आगे बढ़ाया और समाज में दूरियाँ पैदा की। इसका एक उदाहरण एक प्रमुख हिंदी समाचार एकर द्वारा प्रसारित एक विशेष शो है, जिसमें एंकर ने दावा किया कि मुसलमान कई क्षेत्रों में ‘जिहाद कर रहे हैं, जैसे अर्थव्यवस्था, शिक्षा, इतिहास, मीडिया और संगीत। उन्होंने यहाँ तक दावा किया कि मुसलमान सेक्युलर बुद्धिजीवियों को अपने प्रभाव में लेकर उनकी कलम से अपनी बात लिखवा रहे है। इसके अतिरिक्त, एकर ने आरोप लगाया कि मुसलमान भारत की जनसांख्यिकी को बदलने और हिंदू महिलाओं को ‘लव जिहाद के जाल में फंसाने का काम कर रहे हैं।
इस तरह के दुष्प्रचार पर आधारित शो का मकसद हिंदुओं को मुसलमानो से भयभीत करना है और यह दर्शाना है कि मुसलमान जिहाद के माध्यम से जीवन के हर क्षेत्र में हिंदू समुदाय को कमजोर कर रहे हैं। थूक जिहाद के खिलाफ मौजूदा प्रोपेगेंडा भी इसी मुस्लिम- विरोधी रणनीति का हिस्सा है, जिसमें मुसलमानों को हिंदू की सुरक्षा, उनकी पहचान, धर्म और संस्कृति के लिए खतरे के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
अब यह विभाजनकारी रणनीति खाद्य पदार्थों में मिलावट का बहाना बनाकर फैलाई जा रही है। उदाहरण के लिए, मुजफ्फरनगर पुलिस का हालिया आदेश ले, जिसमें दुकानदारो और खाद्य विक्रेताओ को हिंदू तीर्थयात्रियों को भ्रमित करने से बचाने के लिए अपना नाम प्रदर्शित करने का निर्देश दिया गया। हालाँकि मुजफ्फरनगर के मामले में अधिकारी ने दावा किया कि इस आदेश के पीछे कोई सांप्रदायिक मकसद नही है, योगी सरकार के मंत्री कपिल देव अग्रवाल ने असली एजेंडा उजागर कर दिया। आगरा में बोलते हुए उन्होंने कहा, ‘यात्रा के दौरान, कुछ मुसलमान हिंदू देवी-देवताओं के नाम पर अपनी दुकानें चलाते हैं। हमें उनकी दुकानों पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन उन्हें हिंदू देवताओ के नाम पर अपना नाम नहीं रखना चाहिए क्योकि भक्त वहाँ बैठते है और चाय-पानी पीते हैं (दी टाइम्स ऑफ इंडिया, 6 जून)।
हालौंकि सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश पर रोक लगा दी है। दुःख की बात है कि वही पुराना सांप्रदायिक एजेंडा अब नए तरीके से लाया जा रहा है। खाद्य प्रदूषण को रोकने के नाम पर लाए गए इस आदेश का उद्देश्य धार्मिक और सामाजिक विभाजन को गहरा करना है। खाने-पीने के मामले में थूक और गंदगी निलने से संबंधित वायरल वीडियो में आरोपियों के नाम एक विशेष धर्म से जोड़कर दिखाए जा रहे हैं।
कई सालों से सांप्रदायिक ताकतों ने हिंदुओं यह अफवाह फैलाई है कि मुसलमान जानबूझकर को खाना परोसने से पहले उसमें चूकते हैं। इसी प्रकार का पूर्वाग्रह कुछ हद तक मुसलमानों के बीच भी देखा जाता है, जैसे उत्तर प्रदेश में कुछ सुन्नी मुसलमानों का मानना है कि शिया मुसलमान खाने-पीने की बीजों में भूक देते हैं। दलितों के खिलाफ सवर्ण हिंदुओं में यह पूर्वाग्रह और भी गहरा है, उन्हें ‘अपवित्र’ मानकर उनके साथ छुपे-छुपे छुआछूत बरती जाती है, और उनके हाथ से भोजन को स्वीकार करना तो दूर, उनके संपर्क से भी बचने का प्रवास किया जाता है। इन सामाजिक बुराइयों को दूर करने समुदायों और जातियों के बीच सह-भोज (साथ खाने) का रिवाज बढ़ाना जरूरी भाजपा शासित राज्यों में जिस तरह ‘थूक जिहाद’ के नाम पर प्रोपेगेंडा फैलाया जा रहा है, वह चिंताजनक है
दलित-बहुजन नायकों ने बार- बार इस सामाजिक निर्माण में योगदान बात पर जोर दिया है कि भाईचारे और सदभाव के सह-भोज का एक महत्वपूर्ण है। साथ में भोजन करने से दूरियों घटती है, लेकिन जो लोग समाज में बदनाम लोग साहेब बँटवारा चाहते है, वे इसे करने की कोशिश करेंगे ताकि घार्मिक आधार पर बंटे रहें। बाबा डॉ. बी.आर. अबेडकर ने भी सामाजिक के लिए दिया था विभाजन को समाप्त करने सह-भोज और अंतर्जातीय विवाह पर जोर । थूक जिहाद’ का प्रोपेगैंडा अंबेडकर के मिशन’ के खिलाफ है और यह समाज में भाईचारे को स्थापित करने के प्रयासों को कमजोर करता है। यह विमर्श भारत के बहुलवादी और धर्म निरपेक्ष ताने बाने को कमजोर कर, शक और पूर्वाग्रह का माहौल बना रहा है।
थूक जिहाद का मुद्दा केवल मुसलमानों को ही नहीं, बल्कि दलितों को भी निशाना बना सकता है, क्योंकि यह गहरे सामाजिक पूर्वाग्रहों को उजागर करता है। कई सालों से सांप्रदायिक ताकतों ने हिंदुओं ऐतिहासिक रूप से, पवित्रता और अपवित्रता की धारणा जाति व्यवस्था का केंद्र रही है। छुआछूत की प्रथा सबसे पहले दलितों पर थोपी गई थी। दलितों को अपवित्र मानकर अस्पृश्यता की प्रथा को सही ठहराया गया, जिससे उनके तमाम अधिकारों को छीन लिया गया। सवर्ण हिंदू धार्मिक स्थलो पर जानवरों के प्रवेश को तो बर्दाश्त कर सकते थे, मगर दलितों के प्रवेश को अशुद्ध मानते थे।
डॉ. अंबेडकर ने इस सामाजिक बुराई की कड़ी आलोचना की थी। उन्होंने कहा था कि जाति व्यवस्था की सीढ़ी में जैसे- जैसे नीचे उतरेंगे, निचले लोगों के प्रति अपमान और नफरत का स्तर बढ़ता जाएगा। यही कारण था कि अंबेडकर ने हिंदू धर्म का त्याग किया था। उन्हें अनुभव हुआ कि हिंदू धर्म में भाईचारे और बंधुत्व की भावना का अभाव है, इसलिए उन्होंने अपने समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म को अपनाया और मर्म परिवर्तन को ‘मुक्ति’ का रास्ता बताया।
स्वतंत्र भारत में अस्पृश्यता की प्रथा को अपराध घोषित किया गया, और राज्य को यह जिम्मेदारी दी गई कि वह दलितों, आदिवासियों और अन्य हाशिए पर पड़े समूहों के उत्थान के लिए योजनाएँ लागू करे। लेकिन ‘भूक जिहाद जैसे प्रोपेगंडा कमजोर वर्गों को और कमजोर करने की एक बड़ी साजिश है। वास्तव में, यह एक प्रति-कांति है, जो सामाजिक भेदभाव और दूरियों को फिर से उचित ठहराने का बहाना बना रही है। खाद्य सुरक्षा के नाम पर साप्रदायिक ताकतें अस्पृश्यता को मजबूत करना चाहती है, जिसकी मार दलितों और मुसलमानों पर सबसे ज्यादा पड़ेगी।
याद रहे कि अस्पृश्यता के कारण दलित आर्थिक रूप से कमजोर रहे है। जहाँ सवर्ण जातियों के लोग अपनी जाति के नाम पर ‘होटल’ खोल सकते है और उनके ग्राहक उनसे दूर नहीं भागते, यहीं दलित होटल मालिक अकसर अपनी जाति छिपाने के लिए मजबूर होते हैं। उन्हें डर होता है कि यदि सवर्ण जाति के लोग उनकी जाति जान लेंगे, तो उनकी दुकान पर नहीं आएंगे। इसी तरह की समस्या मुस्लिम होटल मालिकों को भी झेलनी पड़ती है। इस सदर्भ में चूक जिहाद का प्रोपेगैंडा न केवल मुसलमानों और दलितों पर हमला है, बल्कि यह उन सामाजिक पूर्वाग्रहों को भी मजबूत करता है, जिन्होंने सदियों से दलितों पर अत्याचार के लिए माहौल तैयार किया है।
हिंदू और मुस्लिम होटलो के प्रति भिन्न धारणाएँ, दलितो के खिलाफ हो रहे ऐतिहासिक बहिष्कार की मानसिकता से भी जुड़ी हुई है। हाल ही में, मुझे लखनऊ के पुराने शहर के इलाकों में जाना पड़ा। वहाँ से मुझे अपने एक दूर के रिश्तेदार के घर जाना था। सोचा, उनके यहाँ खाली हाथ कैसे जाऊँ, तो तय किया कि लखनऊ के चौक इलाके से मिठाई लेते चलें। जब मैंने अपने मुस्लिम दोस्तों से मिठाई खरीदने में मदद करने को कहा, तो उनमें से किसी ने मौलाना स्वीट्स नामक दुकान का जिक्र किया, जो उचित दामों और अच्छी गुणवत्ता के लिए जानी जाती है। लेकिन अगले ही क्षण, उन्होंने मुझे वहाँ जाने से मना कर दिया। उनकी राय थी कि मैं यहाँ से अपने रिश्तेदारों के लिए मिठाई न खरीदें, क्योंकि उनके अनुसार ‘गौलाना स्वीट्स’ का डिब्बा देखकर मेरे रिश्तेदार शायद मिठाई न खाएँ। मुझे भी लगा कि ऐसा समव हो सकता है। फिर मेरे दोस्त ने मुझे किसी सभावित समस्या से बचने के लिए पास की एक हिंदू स्वामित्व वाली दुकान पर ले जाने का सुझाव दिया, जिसका नाम एक हिंदू भगवान के नाम पर रखा गया था।
यह घटना इस बात की ओर इशारा करती है कि सामाजिक दूरियो को पाटने के प्रयास होने चाहिए, न कि उन्हें बढ़ाने के। मगर दुख की बात है कि ‘थूक जिहाद का प्रोपेगैंडा इन सामाजिक दूरियों को बढ़ावा देकर मुसलमानों और दलितों की आर्थिक रीढ़ तोड़ने का काम करेगा। ऐसी नीतियाँ और अभियान केवल स्वच्छता और सुरक्षा के नाम पर लाए जाते है, लेकिन वे धार्मिक और जातिगत आधार पर सामाजिक विभाजन को और बढ़ाते हैं। अगर हम वास्तव में भाईचारे के मूल्य पर आधारित एक धर्मनिरपेक्ष भारत का निर्माण करना चाहते है, तो हमें इन सामाजिक पूर्वाग्रहों से लड़ना होगा। साथ ही, हमें प्रतिक्रियावादी ताकतों को हराना होगा। लेकिन भाजपा की नीतियां असमानता को बढ़ावा दे रही हैं। होटल मालिकों और कर्मचारियों के नामो का खुलासा करने के भाजपा सरकार के फैसले के पीछे असली मकसद समाज में व्याप्त प्रतिक्रियावादी भावनाओं का फायदा उठाना है। ऐसा करके सांप्रदायिक पार्टियर्थी उन व्यापारियों को फायदा पहुँचाना चाहती हैं. जो उनके चुनाव प्रचार को फंड करते है।
यहाँ एक अजीब विडंबना है कि जहाँ भाजपा सरकारे उपभोक्ताओं के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में बेहद सक्रिय हैं, वहीं वे भोजनालयों में काम करने वाले श्रमिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए बहुत कम प्रयास करती है। देशभर में होटलो की स्थिति दयनीय है। किसी भी ढाबे पर जाएँ, आपको वहाँ कोई न कोई बच्चा काम करता हुआ जरूर मिलेगा। कई होटलों और ढाबों में बड़े पैमाने पर बाल श्रम होता है। सरकार इन मुद्दों को हल करने के लिए गंभीर कदम क्यों नहीं उठाती? इससे भी अधिक परेशान करने वाली बात यह है कि जूठे बर्तन साफ करने वाले अधिकाश श्रमिक बहुजन समाज से आते हैं। लगातार पानी के संपर्क में रहने से उनकी उंगलियाँ सड़ जाती हैं। होटलों के मजदूरों को बहुत कम वेतन दिया जाता है और उन्हें अमानवीय परिस्थितियों में लंबे समय तक काम करने के लिए मजबूर किया जाता है। इन श्रमिको के कल्याण में सुधार के लिए भाजपा सरकार की और से कोई पहल क्यों नहीं की जाती?
निष्कर्ष में, मैं यह दोहराना चाहूँगा कि तथाकथित धूक जिहाद के खिलाफ ये दिशा निर्देश प्रतिक्रियावादी है। इनका मुख्य उद्देश्य उपभोक्ता सुरक्षा सुनिश्चित करना या खाद्य पदार्थों को सदूषण से बचाना नहीं है। इसके बजाये, ये नीतियाँ मुसलमानों और दलितों को आर्थिक रूप से हाशिए पर डालने और ‘सर्विलेंस’ को बढ़ावा देने का कार्य करती हैं। कुछ समय पहले, मुस्लिम व्यापारियो को प्रतिस्पर्धा से बाहर करने के लिए हिदुत्ववादी ताकतों द्वारा ‘हलाल’ भोजन के खिलाफ एक अभियान चलाया गया था। थूक जिहाद को रोकने के लिए लाए जा रहे नए नियम उसी हिंदुत्ववादी एजेंडे की निरंतरता है। धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक और सामाजिक न्याय की ताकतो को इन विभाजनकारी नीतियों का विरोध करने के लिए एकजुट होना चाहिए।