कुछ लोगों का ख्याल है कि, ‘होली, दीपावली, ईद, क्रिसमस, ये सब किसी विशेष धर्म की जागीर हैं’ ऐसा नहीं है, होली दीपावली पर और अन्य बहुत से पर्वों पर विभिन्न धर्म के मानने वालों ने बहुत कुछ लिखा है। हमें होली दीपावली के ज़माने में अपना बचपन और घर महमूदाबाद में याद आता है जहाँ होली से तीन चार दिन पहले ही हम लोग जितने भी पैसे हमारे गुल्लक में होते थे, उनसे रंग और पिचकारी खरीदने की तैयारी करने लगते।
Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!हमारे बचपन के दिनों में प्लास्टिक की शुरुआत का दौर था और ज़्यादातर पिचकारियां पीतल वग़ैरह की होती थी जो महंगी होती थी, इसीलिए हम लोग लंबे पोर वाले बाँस काटकर इकट्ठा करते और उसे लाकर उसी से देसी पिचकारियां बनाया करते थे। एक बाल्टी में रंग लेकर पहले मोहल्ले में हर घर जा कर औरतों और बच्चों को एकतरफ से रंग लगाते किसी को कोई गुरेज़ नहीं होती। बस कोई यही सिर्फ कहता,”भइया मुँह मा रंग न लागे।”
हाईस्कूल के बाद लखनऊ आना पड़ा।उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद जब 1973-74 में बहुगुणा जी की सरकार बनी मैं शिया कॉलेज में प्रिन्सिपल था उसके बाद बहुगुणा जी ने मुझे 11 गौतम पल्ली रहने को दिया।
गौतम पल्ली की होली बहुत मशहूर थी सारे लोग सवेरे 10 बजे मेरे घर पर आ जाते जिसमे से लगभग सभी लोग सीनियर IAS अधिकारी हुआ करते थे।मेरे घर के बराबर में सुरेंद्र मोहन साहब रहा करते थे, नृपेंद्र मिश्रा जी जो बाद में कैबिनेट सेक्रेट्री हुए,अशोक चन्द्र साहब,इंद्र प्रकाश, पी.सी.शर्मा साहब,श्री संत कुमार त्रिपाठी, श्री नसीम ज़ैदी, शशिभूषण शरण साहब,बृजेन्द्र यादव जी, गोपी कृष्ण अरोरा साहब, प्रशांत कुमार जी वग़ैरा 10 बजे सुबह सबसे पहले हमारे घर में एक दूसरे पर रंग डालते, गुझिया खाते।
योगेंद्र नारायण जी आगे रहते फिर सब के घर जाया जाता, ठंडाई का इंतेज़ाम भी रहता और कहीं-कहीं ठंडाई में भाँग भी डाली जाती थी।अंत में योगेंद्र नारायण जी के घर जाते वहाँ एक हौज़ हुआ करती थी उसी हौज़ में सब एक दूसरे को धकेलते बहुत ज़्यादा आनन्द की अनुभूति करते।उसके बाद हमलोग मुख्यमंत्री जी के यहाँ जाते, उनके घर का दरवाज़ा खुला रहता किसी भी मुख्यमंत्री चाहे वो बहुगुणा जी हों, या नारायण दत्त तिवारी, राम नरेश यादव हों, या बनारसीदास, विश्वनाथ प्रताप सिंह हों, या श्रीपत मिश्रा जी, वीर बहादुर सिंह हों, या मुलायम सिंह यादव, कल्याण सिंह हों, या रामप्रकाश गुप्ता, सब के यहाँ होली के अवसर पर हम सभी को पूरी आज़ादी हासिल थी।
सभी लोग 5 कालिदास मार्ग के लॉन में ज़बरदस्त होली खेलते थे।न कोई हिन्दू था,न मुसलमान, न सिख न ईसाई, जबकि सभी भारत माँ के संतान थे और सब मिलजुलकर होली खेलते थे।
एक महानुभाव थे जो बाद में भारत सरकार के गृह सचिव बने थे और जो होली के रंग का सख्त विरोध करते थे इसीलिए होली के दिन घर बंद कर लेते थे।सुरेंद्र मोहन जी उत्तरप्रदेश सरकार के गृह सचिव थे मैंने उनसे कहा कि आप उनके घर में कूदिए और घर को अंदर से खोलिए क्योंकि अगर आप कूदेंगे तो FIR नहीं होगा।उन्होंने ऐसा ही किया।
इसी तरह दाढ़ी वाले लोगों के लिए हम लोगों के पास खास इंतेज़ाम था, जिसकी दाढ़ी सफेद होती उसके लिए काले रंग का पेंट तथा जिसकी दाढ़ी काली उसके लिए सफ़ेद रंग का पेंट की व्यवस्था रहती थी।
सब एक दूसरे के घर जाते उसके बाद हम लोग राजभवन जाते वहाँ एक मेले जैसा माहौल रहता।राजभवन के दरवाजे भी सभी के लिए खुले रहते थे।
मौजूदा हालात में मैं जब इन सब बातों को सोचता हूँ तो इक ख्वाब सा महसूस होता है।
होली और दीपावली के बारे में जो नज़ीर अकबराबादी ने जो कहा है उसकी चंद पंक्तियां लिखकर अपनी बात खत्म करता हूँ।
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की
ख़ुम, शीशे, जाम, झलकते हों तब देख बहारें होली की।