बहराइच और श्रावस्ती में अफसरों की कार्रवाई पूरी तरह ग़ैरक़ानूनी, सरकार तुरंत ध्यान दे: मौलाना क़ासमी
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कानपुर। मोहम्मद उस्मान कुरैशी। बहराइच और श्रावस्ती जैसे बॉर्डर इलाक़ों में हाल ही में कई ग़ैर-सरकारी (बिना सरकारी मदद के) चलने वाले धार्मिक मदरसों को सिर्फ़ इसलिए बंद कर दिया गया क्योंकि उनके पास “सरकारी मंज़ूरी” नहीं थी। यह कदम न सिर्फ़ ग़ैरक़ानूनी है बल्कि भारत के संविधान में दी गई अल्पसंख्यकों की शिक्षा की आज़ादी पर सीधा हमला है।
जमीयत उलेमा उत्तर प्रदेश के उपाध्यक्ष मौलाना अमीनुल हक़ अब्दुल्ला क़ासमी ने इस पर चिंता जताते हुए कहा कि यह सब एक अफसर के भेदभाव और मनमानी का नतीजा है। उस अफसर ने अपने अधिकारों का ग़लत इस्तेमाल करके मदरसों के खिलाफ़ कार्रवाई की।
मौलाना क़ासमी ने बताया कि भारत का संविधान हर नागरिक को बिना किसी भेदभाव के शिक्षा और संस्थान बनाने का अधिकार देता है। संविधान की धारा 30(1) के अनुसार, अल्पसंख्यकों को अपने शैक्षिक संस्थान खोलने और चलाने की पूरी आज़ादी है। इसके अलावा, RTE क़ानून (2009) की धारा 1(4) के मुताबिक़ धार्मिक संस्थान इस क़ानून से बाहर हैं। इसका मतलब है कि ऐसे मदरसों को सरकारी मंज़ूरी की ज़रूरत नहीं होती, और वे संविधान द्वारा सुरक्षित हैं।
मौलाना क़ासमी ने यह भी बताया कि जमीयत उलेमा-ए-हिंद पिछले तीन सालों से ऐसे मामलों पर लगातार बैठकें कर रही है और इस मुद्दे पर एक स्थायी कमेटी भी काम कर रही है। जमीयत के अध्यक्ष मौलाना सैयद महमूद असअद मदनी इस पूरे मुद्दे पर गंभीरता से नज़र बनाए हुए हैं और क़ानूनी लड़ाई भी लड़ रहे हैं। मदरसों की सुरक्षा और उनके शैक्षिक व संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए जमीयत लगातार सक्रिय है।
मौलाना क़ासमी ने कहा कि आज ज़रूरत है आपसी एकता, संवैधानिक जागरूकता और संगठित कोशिशों की। अगर किसी भी स्तर पर मदरसों के खिलाफ़ कोई अन्याय या दबाव सामने आए, तो जमीयत उलेमा के ज़िम्मेदारों से तुरंत संपर्क करें ताकि समय पर क़ानूनी मदद मिल सके।
उन्होंने सरकार से माँग की कि वह साफ़-साफ़ ऐलान करे कि बिना सरकारी मदद के चलने वाले अल्पसंख्यक धार्मिक संस्थानों को किसी मंज़ूरी की ज़रूरत नहीं है, और जिन मदरसों को बंद किया गया है उन्हें तुरंत फिर से शुरू किया जाए। साथ ही, उन अफसरों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की जाए जिन्होंने अपने अधिकारों का ग़लत इस्तेमाल किया।
मौलाना क़ासमी ने सभी मुस्लिम संगठनों, धार्मिक संस्थानों, मदरसा प्रबंधकों और जागरूक नागरिकों से अपील की कि वे इस मुद्दे को केवल एक संस्थान का मामला न समझें, बल्कि इसे संविधान और धार्मिक पहचान की सुरक्षा का एक राष्ट्रीय मुद्दा मानें और पूरी जागरूकता, एकता और गंभीरता से आगे बढ़ें।