कर्बला का सन्देश: इंसाफ़ और इज़्ज़त की लड़ाई में हुसैन (अ.स.) की शहादत की यादें ताज़ा
कानपुर में 4 मोहर्रम के मौक़े पर अज़ादारी और अलम जुलूस की धूम
कानपुर। मोहम्मद उस्मान कुरैशी। मोहर्रम-उल-हराम के चौथे दिन पूरे शहर में हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) और उनके साथियों की शहादत को याद किया गया। शहर की इमामबाड़ाओं, मस्जिदों और कर्बलाओं में मजलिसे अज़ा, जिक्रे शहादत और कुरान ख़्वानी का दौर देर रात तक जारी रहा। वहीं, ऐतिहासिक अलम जुलूस निकालकर अकीदतमंदों ने “ज़िल्लत की ज़िंदगी से इज़्ज़त की मौत बेहतर है” के हुसैनी पैग़ाम को दोहराया।
मजलिस में गूँजा कर्बला का पैग़ाम
इमामबाड़ा सज्जादी हाल में आयोजित मजलिस को संबोधित करते हुए मौलाना सैय्यद तौक़ीर हुसैन ने कहा कि “यज़ीद फिरऔन, शद्दाद और अबू जहल का वारिस था, जबकि इमाम हुसैन (अ.स.) पैग़म्बरों के मिशन के नुमाइंदे थे।” उन्होंने कर्बला की घटना को याद करते हुए कहा कि “इमाम हुसैन (अ.स.) ने हक़ और इंसाफ़ के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी, लेकिन ज़ुल्म के आगे झुकना स्वीकार नहीं किया। यही वह सच्चाई है जो हर दौर में मनुष्यता का मार्गदर्शन करती है।”
मजलिस में शायरों ने भी हुसैन (अ.स.) की मोहब्बत में नज्में पेश कीं:
“दुनिया भी है हुसैन की, जन्नत हुसैन की,
जन्नत का रास्ता है मोहब्बत हुसैन की।”
135 साल पुराने अलम का भव्य जुलूस
दूसरी ओर, कानपुर के नई सड़क इलाक़े से हामिद मियां का 135 वर्ष पुराना अलम जुलूस निकाला गया, जिसमें सैकड़ों अकीदतमंदों ने हिस्सा लिया। ऊँटों, घोड़ों और सजे हुए ठेलों के साथ निकले इस जुलूस में नौहाख़्वानी और मातमी नग़मों के बीच इमाम हुसैन (अ.स.) को याद किया गया। जुलूस के मार्ग में महिलाएँ छतों से फूल बरसाती दिखीं, जबकि लोगों को बिरयानी और शिरनी का तबर्रुक बाँटा गया।
इसी तरह, झूला पार्क, ख़ालासी लाइन से भी एक भव्य अलम जुलूस निकाला गया, जो सुटरगंज होते हुए देर रात तक चला। पुलिस ने दोनों जुलूसों में सुरक्षा के पुख़्ता इंतज़ाम किए थे।
कर्बला सिर्फ़ इतिहास नहीं, एक जीवित सन्देश
मौलाना तौक़ीर हुसैन ने कहा कि “कर्बला सिर्फ़ एक घटना नहीं, बल्कि हर युग में ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की प्रेरणा है।” उन्होंने इमाम हुसैन (अ.स.) के कथन “ज़िल्लत की ज़िंदगी से इज़्ज़त की मौत बेहतर है” को याद दिलाते हुए कहा कि आज भी समाज में न्याय और सच्चाई के लिए संघर्ष करने की ज़रूरत है।
कानपुर के अलावा पूरे देश में मोहर्रम के मौक़े पर मातमी जुलूस और मजलिसें आयोजित की जा रही हैं, जो यह दर्शाती हैं कि कर्बला का पैग़ाम आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना 1400 साल पहले था।