मुस्लिम समुदाय अपने पिछड़ेपन के लिए बहुत हद तक खुद भी ज़िम्मेदार है
भारत में मुस्लिम समुदाय के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के कारणों को समझने के लिए ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पहलुओं पर विचार करना ज़रूरी है। यह एक जटिल मुद्दा है, और इसके कई कारण हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख निम्नलिखित हैं: Scripted by Shafique Faizi
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1. ऐतिहासिक कारण
- उपनिवेशकालीन प्रभाव: ब्रिटिश काल में मुस्लिम समुदाय ने पारंपरिक शिल्प और ज़मींदारी व्यवस्था पर निर्भर रहने के कारण औद्योगिकीकरण और आधुनिक शिक्षा से पिछड़ गया। अंग्रेजों की “फूट डालो और शासन करो” नीति ने हिंदू-मुस्लिम संबंधों में तनाव बढ़ाया, जिससे समुदाय के विकास पर प्रभाव पड़ा।
- विभाजन का प्रभाव (1947): भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद, शहरी और शिक्षित मुस्लिम वर्ग का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान चला गया। भारत में रह गए मुसलमानों में से अधिकांश ग्रामीण, गरीब या पारंपरिक व्यवसायों से जुड़े थे।
2. मुस्लिम समुदाय के शैक्षिक पिछड़ापन
- साक्षरता दर: राष्ट्रीय सांख्यिकीय संगठन (NSO) और सच्चर समिति रिपोर्ट (2006) के अनुसार, मुस्लिम समुदाय की साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से कम है। इसका एक कारण आधुनिक शिक्षा तक सीमित पहुंच और धार्मिक शिक्षा (मदरसों) पर अधिक निर्भरता है।
- शैक्षिक संस्थानों में कम भागीदारी: उच्च शिक्षा और तकनीकी संस्थानों में मुस्लिम छात्रों का प्रतिनिधित्व कम है, जो रोजगार के अवसरों को सीमित करता है।
3. आर्थिक असमानता
- रोजगार की स्थिति: मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा हिस्सा अनौपचारिक क्षेत्र (जैसे छोटे दुकानदार, मजदूर, हस्तशिल्पी) में काम करता है, जहां आय अस्थिर और कम है। सरकारी नौकरियों और निजी क्षेत्र में उनकी भागीदारी कम है।
- संपत्ति और संसाधनों तक पहुंच: ऐतिहासिक रूप से ज़मीन और संपत्ति के मालिकाना हक में पिछड़े होने के कारण आर्थिक उन्नति में बाधा आई है।
4. मुस्लिम समुदाय का सामाजिक-राजनीतिक कारण
- राजनीतिक प्रतिनिधित्व की कमी: कई राज्यों में मुस्लिम समुदाय का राजनीतिक प्रतिनिधित्व उनकी जनसंख्या के अनुपात में नहीं है, जिससे उनकी आवाज़ नीति-निर्माण तक कम पहुंचती है।
- सामुदायिक रूढ़िवादिता: कुछ हिस्सों में धार्मिक रूढ़िवादिता और लैंगिक असमानता (जैसे महिलाओं की शिक्षा पर पाबंदी) ने सामाजिक प्रगति को धीमा किया है। हालाँकि हाल में मुस्लिम समुदाय में महिला शिक्षा पर काफी सुधार हुआ है। यह जागरूकता ग्रामीण और शहरी छेत्रों में सामान है। अलबत्ता शिक्षा छेत्रों में अभी भी गुणवत्ता की भारी कमी है। जिसकी तरफ मुस्लिम समुदाय को खास ध्यान केंद्रित करना होगा। इस के लिए मदरसा शिक्षा में बड़े बदलाव करना होगा।
- सांप्रदायिक हिंसा और भेदभाव: समय-समय पर होने वाली सांप्रदायिक घटनाओं और सामाजिक भेदभाव ने समुदाय के आत्मविश्वास और आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित किया है। चिंता का विषय यह कि पिछले कुछ वर्षों में सांप्रदायकता धार्मिक भेदभाव में बढ़ोतरी हुई। खासकर वर्ष 2014 के बाद सांप्रदायिक हिंसा, भेदभाव एवं आर्थिक बहिष्कार बड़ा है जो मुस्लिमों के और अधिक पिछड़ने की ओर इशारा करता है।
5. सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों की सीमाएं
- अल्पसंख्यक कल्याण योजनाओं का अपर्याप्त क्रियान्वयन: शिक्षा, रोजगार और व्यवसाय के लिए बनाई गई योजनाएं (जैसे मल्टी-सेक्टोरल डेवलपमेंट प्रोग्राम) अक्सर ज़मीनी स्तर पर प्रभावी ढंग से लागू नहीं हो पातीं। इधर वर्त्तमान की सरकारों की तरफ से मुस्लिम समुदाय से समबन्धित कई सरकारी योजनाओं (मौलाना आजाद राष्ट्रीय फेलोशिप MANF, मदरसा आधुनिकीकरण योजना, उत्तर परदेश मदरसा मान्यता प्रक्रिया, कामिल फ़ाज़िल मदरसा सर्टिफिकेट के बंद होने से सम्स्सियाएँ और भी जटिल हो गई हैं।
- आरक्षण का अभाव: अनुसूचित जाति/जनजाति की तरह मुस्लिम समुदाय के लिए आरक्षण नहीं है, हालांकि कुछ राज्यों ने OBC श्रेणी में कुछ मुस्लिम समूहों को शामिल किया है, किन्तु वह काफी नहीं।
6. आंतरिक चुनौतियाँ
- समुदाय में सुधारवादी आंदोलनों की कमी: हिंदू समाज की तुलना में मुस्लिम समाज में शिक्षा, महिला सशक्तिकरण और सामाजिक सुधार के लिए व्यापक आंदोलन सीमित रहे हैं।
- अपनी जिम्मेदारियों से मुंह चुराना:भारत में आम तौर पे हर समुदाय अपने साथ साथ अपने पूरे समाज को लेकर चलता है। इसके लिए समुदाय के वंचित लोगों के शैक्षिक, आर्थिक, राजनितिक और सामाजिक उद्धार के लिए सामान्य अवसरों की व्यवस्था करता है, जबकि मुस्लिम समुदाय में इस कि कमी है।
- मदरसा शिक्षा प्रणाली: अधिकांश मदरसों में आधुनिक विषयों (विज्ञान, गणित, अंग्रेजी) की कमी से रोजगार के अवसर सीमित होते हैं।
अन्य कारण भी हैं
- यह महत्वपूर्ण है कि “मुस्लिम समुदाय” एक विविध समूह है। इसमें भाषाई, क्षेत्रीय और आर्थिक विविधताएं हैं। कुछ मुस्लिम समूह (जैसे बोहरा, मेमन) आर्थिक रूप से संपन्न हैं, जबकि अन्य (जैसे अंसारी, कुन्ज़ड़ा धोबी) पिछड़े हैं।
- सरकारी रिपोर्ट्स (सच्चर समिति, रंगनाथ मिश्रा आयोग) और स्वतंत्र अध्ययनों ने इन चुनौतियों को स्वीकार किया है, और इन्हें दूर करने के लिए नीतिगत प्रयासों की सिफारिश की है। यह और बात है इस सम्बन्ध में सरकारों ने सकारात्मक कदम नहीं उठाये हैं। मुस्लिम समुदाय ने भी इसके लिए योजनाबद्ध तौर तरीकों से इधर ध्यान नहीं दिया। संगठनामक संघर्ष के बजाय मुस्लिम समुदाय चाटुकारिता से इन सम्स्सियाओं हल चाहता है जो अभी के राजनितिक परिवेक्ष में संभव नहीं है।
- हाल के वर्षों में कुछ सकारात्मक बदलाव भी हुए हैं, जैसे मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा दर में वृद्धि और डिजिटल समावेशन के माध्यम से नए अवसरों तक पहुंच।
इस मुद्दे का समाधान बहुआयामी दृष्टिकोण, शिक्षा, आर्थिक सशक्तिकरण, सामाजिक सुधार और राजनीतिक समावेशन से ही संभव है। जिस में मुस्लिम समाज के उच्च धार्मिक, राजनेतिक, आर्थिक रूप से संपन्न लोगों खास कर खानकाहों और शैक्षिक संस्थानों के समोहिक एंव सार्थक परियासों से ही संभव है